Ek Jhappi, Ek Call – Mental Health बचाने की सबसे बड़ी दवा

Ek Jhappi, Ek Call – Mental Health बचाने की सबसे बड़ी दवा

जब बात मेंटल हेल्थ की आती है तो दवाइयाँ और थेरेपी बहुत जरूरी हैं, लेकिन उससे कहीं ज्यादा जरूरी है हमारे आस-पास का सपोर्ट सिस्टम। घर वाले, दोस्त, रिश्तेदार – यही वो लोग हैं जो हमें सबसे पहले पकड़ते हैं जब हम गिरने वाले होते हैं। डॉक्टर महीने में एक बार मिलता है, काउंसलर हफ्ते में एक सेशन लेता है, लेकिन मम्मी-पापा, भाई-बहन और दोस्त तो रोज हमारे साथ होते हैं। उनकी एक आँख देखते ही पता चल जाता है कि आज कुछ ठीक नहीं है। उनकी एक झप्पी, एक फोन कॉल, एक बता ना क्या हुआ – कई बार यही दवा बन जाती है।

मैंने खुद देखा है। मेरी एक दोस्त थी, ऑफिस की प्रेशर से डिप्रेशन में चली गई थी। न खाना खाती थी, न बात करती थी, बस कमरे में बंद रहती थी। दवाई तो चल ही रही थी, लेकिन असली बदलाव तब आया जब उसकी छोटी बहन हर शाम उसके पास बैठने लगी। कुछ नहीं बोलती थी, बस साथ बैठी रहती, कभी पुराने फोटो दिखाती, कभी चाय बनाकर लाती। धीरे-धीरे वो बोलने लगी, फिर रोने लगी, फिर हँसने लगी। आज वो ठीक है। कहती है, “दवाई ने मुझे जिंदा रखा, लेकिन मेरी बहन ने मुझे जीना सिखाया।

परिवार का रोल सबसे बड़ा होता है क्योंकि वो हमें बिना जजमेंट के स्वीकार करता है। बाहर दुनिया कहती है “पागल हो गए हो क्या?”, लेकिन माँ कहती है “बेटा, चल कुछ खा ले, फिर बात करते हैं।” पापा चुपचाप सैर पर ले जाते हैं, भाई गाली देकर हँसाने की कोशिश करता है। वो लोग परफेक्ट सलाह नहीं देते, कभी-कभी तो गलत भी समझते हैं, लेकिन उनका साथ ही काफी होता है। उनकी मौजूदगी ही बताती है कि हम अकेले नहीं हैं। और डिप्रेशन में सबसे बड़ी दिक्कत यही लगती है – अकेलापन। परिवार उस अकेलेपन को भर देता है।

दोस्तों का रोल भी कम जादुई नहीं होता। कॉलेज का दोस्त जो रात दो बजे भी फोन उठा लेता है, स्कूल की सहेली जो बिना कुछ पूछे घर आ जाती है, वो लोग हमारी दूसरी फैमिली होते हैं। वो हमें वो स्पेस देते हैं जहाँ हम बिना डर के टूट सकते हैं। घर में कभी-कभी शर्मिंदगी लगती है कि मम्मी-पापा को दुखी कर रहे हैं, लेकिन दोस्त के सामने हम अपना सबसे गंदा रूप दिखा सकते हैं – रो सकते हैं, गाली दे सकते हैं, चिल्ला सकते हैं। और वो सुनते हैं, बिना जज किए। कई बार तो बस चुप रहते हैं, लेकिन उनकी चुप्पी भी बोलती है – मैं हूँ ना यार।

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मैंने देखा है कि जो लोग मेंटल हेल्थ की लड़ाई जीत जाते हैं, उनके पीछे हमेशा कोई न कोई एक इंसान जरूर होता है जो कभी हारा नहीं मानता। कभी माँ होती है जो रोज सुबह दवाई याद दिलाती है, कभी पति जो रात भर जागकर बातें करता है, कभी बेटी जो ड्राइंग बनाकर देती है कि “पापा जल्दी ठीक हो जाओ।” ये छोटी-छोटी चीजें दिमाग में ऑक्सीटोसिन बढ़ाती हैं, जो स्ट्रेस हॉर्मोन को कम करता है। साइंस भी यही कहती है – प्यार और स्पर्श सचमुच दवा का काम करते हैं।

लेकिन दुख की बात ये है कि आजकल ज्यादातर परिवारों में मेंटल हेल्थ को सीरियसली नहीं लिया जाता। “ये सब मन का वहम है”, “हमारे जमाने में कोई डिप्रेशन नहीं होता था”, “लड़के रोते नहीं” – ये डायलॉग आज भी बहुत घरों में चलते हैं। नतीजा ये होता है कि बच्चा या बड़ा, जो अंदर से टूट रहा होता है, वो और अंदर धंस जाता है। बोल नहीं पाता, मदद नहीं मांग पाता, और एक दिन सब खत्म कर लेता है। हम अखबार में पढ़ते हैं – 22 साल का लड़का, IAS की तैयारी कर रहा था, फांसी लगा ली। माँ-बाप कहते हैं, “पता नहीं क्या हुआ, सब तो ठीक था।” लेकिन सच ये है कि सब ठीक नहीं था, बस कोई सुनने वाला नहीं था।

दोस्तों में भी यही प्रॉब्लम है। आजकल दोस्ती भी सोशल मीडिया तक सिमट गई है। जन्मदिन पर विश करते हैं, दुख की पोस्ट पर सैड इमोजी डाल देते हैं, बस। असली दोस्ती वो है जो घर आ जाए, फोन छीन ले, बाहर घसीट ले, जबरदस्ती खाना खिला दे। लेकिन आजकल सब बिजी हैं, सबकी अपनी लाइफ है, सबकी अपनी स्ट्रगल है। नतीजा ये कि जो इंसान अंदर से टूट रहा होता है, वो सबसे ज्यादा अकेला महसूस करता है जबकि उसके हजारों फ्रेंड्स लिस्ट में हैं।

परिवार और दोस्तों को क्या करना चाहिए? सबसे पहले तो सुनना सीखना चाहिए। जब कोई कहे “मुझे अच्छा नहीं लग रहा”, तो उसे तुरंत “पागल मत बन” या “सब ठीक हो जाएगा” बोलकर टालना नहीं चाहिए। बस चुपचाप सुनना चाहिए। पूछना चाहिए – “क्या हुआ, बताएगा?” और अगर वो नहीं बता पाए तो भी गले लगा लेना चाहिए। कई बार शब्दों की नहीं, सिर्फ मौजूदगी की जरूरत होती है।

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दूसरा, मेंटल हेल्थ को बीमारी की तरह ट्रीट करना चाहिए। जैसे बुखार में डॉक्टर के पास ले जाते हैं, वैसे ही डिप्रेशन में साइकियाट्रिस्ट के पास ले जाना चाहिए। घर वाले अक्सर शर्मिंदगी की वजह से डॉक्टर नहीं ले जाते। “लोग क्या कहेंगे” के डर से बच्चे को घर में बंद रखते हैं। लेकिन याद रखो – लोग तो वैसे भी कुछ न कुछ कहते हैं। अपना बच्चा बचाना ज्यादा जरूरी है।

तीसरा, रूटीन बनाना। जो इंसान डिप्रेशन में होता है, उसे कुछ भी करने का मन नहीं करता। ऐसे में परिवार को जबरदस्ती भी अच्छे तरीके से उसे उठाना चाहिए। सुबह सैर पर ले जाना, शाम को चाय के साथ बैठना, रात को जल्दी सुलाना। छोटी-छोटी आदतें वापस लानी चाहिए। दोस्तों को भी बीच-बीच में घर बुलाना चाहिए, पुरानी यादें ताजा करनी चाहिए।

और सबसे जरूरी – धैर्य रखना। मेंटल हेल्थ की रिकवरी रातोंरात नहीं होती। कभी अच्छा दिन आता है, कभी फिर खराब। कई बार मरीज खुद चिड़चिड़ा हो जाता है, गुस्सा करता है, बात नहीं करना चाहता। ऐसे में परिवार और दोस्तों को टूटना नहीं चाहिए। वो गुस्सा बीमारी का हिस्सा है, इंसान का नहीं। बस प्यार से हैंडल करना है।

आज के समय में जब हर दूसरा इंसान किसी न किसी मेंटल हेल्थ इश्यू से गुजर रहा है, परिवार और दोस्तों की भूमिका और भी बढ़ गई है। अगर आपके आस-पास कोई ऐसा है जो चुप-चुप रहने लगा है, पहले जैसा नहीं रहा, तो एक बार जाकर गले लगा लो। पूछ लो, “सही में ठीक हो ना?” हो सकता है आपकी वो एक झप्पी, उसकी जिंदगी बचा ले।

क्योंकि दवाइयाँ दिमाग की केमिस्ट्री ठीक करती हैं, लेकिन परिवार और दोस्त दिल को ठीक करते हैं। और जब दिल ठीक हो जाता है, तो दिमाग भी अपने आप ठीक होने लगता है। बस प्यार चाहिए, ढेर सारा प्यार और थोड़ा सा सब्र। बाकी सब अपने आप ठीक हो जाता है।

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