Dopamine Addiction: सोशल मीडिया का नशा और दिमाग का कब्ज़ा 2025

आज के समय में अगर कोई चीज चौबीसों घंटे हमारे दिमाग पर असर डाल रही है तो वो है सोशल मीडिया। सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले फोन हाथ में आता है, इंस्टाग्राम की रील्स, फेसबुक की पोस्ट्स, ट्विटर के ट्रेंड्स और व्हाट्सएप के मैसेज। रात को सोने से पहले भी आखिरी काम यही होता है। बीच-बीच में नोटिफिकेशन की आवाजें आती रहती हैं और हम हर बार फोन उठा लेते हैं। हम सोचते हैं कि हम बस दो मिनट देख रहे हैं, लेकिन पता नहीं कब दो घंटे बीत जाते हैं। इसी दो घंटे में हमारी मेंटल हेल्थ पर गहरा असर पड़ता है, जिसका हमें अहसास भी नहीं होता।

Dopamine Addiction: सोशल मीडिया का नशा और दिमाग का कब्ज़ा

सोशल मीडिया ने हमें दुनिया से जोड़ दिया है, ये बात सौ फीसदी सच है। दूर बैठे रिश्तेदारों से बात हो जाती है, पुराने दोस्त मिल जाते हैं, नई-नई चीजें सीखने को मिलती हैं। लेकिन इसी प्लेटफॉर्म ने एक ऐसी दुनिया भी बना दी है जहाँ हर इंसान परफेक्ट लगता है। लड़कियाँ जीरो फिगर, बेदाग स्किन, लग्जरी ट्रिप्स और महंगे कपड़ों में दिखती हैं। लड़के लग्जरी कारों, मसल्स और विदेशी लोकेशन्स के साथ फोटो डालते हैं। शादीशुदा जोड़े हर फोटो में एक-दूसरे के गले में हाथ डाले मुस्कुराते दिखते हैं। हमें लगता है कि सबकी लाइफ परफेक्ट है, सिर्फ हमारी लाइफ में ही दिक्कतें हैं। इसी तुलना ने हमें अंदर से खोखला करना शुरू कर दिया है।

एक स्टडी के मुताबिक जो लोग दिन में तीन घंटे से ज्यादा सोशल मीडिया इस्तेमाल करते हैं, उनमें डिप्रेशन और एंग्जायटी की संभावना दोगुनी हो जाती है। वजह साफ है – हम दूसरों की हाइलाइट रील देखते हैं और अपनी पूरी फिल्म को गलत समझ बैठते हैं। कोई अपनी असफलता, झगड़े, आर्थिक तंगी या मेंटल स्ट्रगल पोस्ट नहीं करता। हम सिर्फ चमक-दमक देखते हैं और सोचते हैं कि हम पीछे रह गए। ये तुलना धीरे-धीरे आत्मविश्वास को खत्म कर देती है। लड़कियाँ अपने लुक्स को लेकर इनसिक्योर हो जाती हैं, लड़के पैसे और स्टेटस को लेकर।

फिर आता है FOMO – Fear Of Missing Out। कोई गोवा ट्रिप पर गया, कोई नई कार खरीद ली, किसी की शादी की सालगिरह पर सरप्राइज पार्टी हुई – सब कुछ दिखता है। हमें लगता है कि सब मजे कर रहे हैं और हम अपनी चारदीवारी में फंसे हुए हैं। ये डर हमें रात भर स्क्रॉल करने पर मजबूर कर देता है। नींद खराब होती है, सुबह थकान रहती है, फिर पूरा दिन चिड़चिड़ापन। नींद की कमी अपने आप में डिप्रेशन का सबसे बड़ा कारण है, और सोशल मीडिया उसे सीधे-सीधे प्रभावित करता है।

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साइबर बुलिंग भी आजकल बहुत बढ़ गई है। पहले गाली-गलौज स्कूल के बाहर या गली-मोहल्ले में होती थी, अब वो कमेंट सेक्शन में होती है। एक फोटो डाली नहीं कि नीचे सौ कमेंट्स – “मोटी हो गई हो”, “फिल्टर हटा के दिखाओ”, “पैसे कहाँ से आए”, “शक्ल देखी है अपनी?”। ज्यादातर लोग अनजान प्रोफाइल से लिखते हैं, इसलिए डर नहीं लगता। लेकिन जिसके लिए लिखा जा रहा है, वो इंसान अकेले में बैठकर रोता है। कई बार तो ये बुलिंग इतनी बढ़ जाती है कि लोग सुसाइड तक कर लेते हैं। अभी पिछले साल ही एक मशहूर टिकटॉकर ने लाइव आकर सुसाइड कर लिया था, सिर्फ ट्रोलिंग की वजह से।

इंस्टाग्राम और टिकटॉक की रील्स ने तो एक नया रोग दे दिया है – डोपामाइन एडिक्शन। हर पंद्रह सेकंड में नया वीडियो, नया गाना, नया जोक, नया डांस। दिमाग को लगातार छोटे-छोटे रिवॉर्ड मिलते रहते हैं। किताब पढ़ने में, पढ़ाई करने में, या कोई लंबा काम करने में मजा नहीं आता क्योंकि वहाँ इंस्टेंट रिवॉर्ड नहीं मिलता। नतीजा ये होता है कि फोकस करने की क्षमता खत्म हो जाती है। बच्चे हो या बड़े, सबकी अटेंशन स्पैन कम हो गई है। पढ़ाई में मन नहीं लगता, नौकरी में भी बार-बार फोन चेक करने की आदत पड़ जाती है।

फिर आते हैं इन्फ्लुएंसर्स। फिटनेस इन्फ्लुएंसर सुबह पाँच बजे जिम जाते हैं, ग्रीन जूस पीते हैं, दस किलो वजन घटा लेते हैं। हम सोचते हैं कि हम भी ऐसा करेंगे। तीन दिन ट्राई करते हैं, फिर छोड़ देते हैं। खुद को नाकाम समझते हैं। कोई बिज़नेस कोच बता रहा है कि तीस साल की उम्र से पहले करोड़पति बन जाओ। हम अपनी साधारण नौकरी को कोसने लगते हैं। ये सारी चीजें हमें लगातार असफल महसूस कराती हैं, जबकि सच ये है कि ज्यादातर इन्फ्लुएंसर्स की लाइफ भी उतनी परफेक्ट नहीं होती जितनी दिखाते हैं।

लेकिन क्या सोशल मीडिया सिर्फ नुकसान ही करता है? नहीं। बहुत सारे लोग इसी प्लेटफॉर्म पर मेंटल हेल्थ अवेयरनेस फैला रहे हैं। कई पेज हैं जो डिप्रेशन, एंग्जायटी, थेरेपी की बात करते हैं। लोग अपनी सच्ची कहानियाँ शेयर करते हैं कि वो डिप्रेशन से कैसे बाहर निकले। ऐसे में जो इंसान अकेला महसूस कर रहा होता है, उसे लगता है कि वो अकेला नहीं है। हेल्पलाइन नंबर, सपोर्ट ग्रुप्स, फ्री काउंसलिंग की जानकारी भी यहीं से मिलती है। कई लोग तो इसी वजह से थेरेपी लेने का हौसला जुटा पाते हैं।

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फिर भी सच्चाई ये है कि फायदे से ज्यादा नुकसान अभी हो रहे हैं क्योंकि हम बिना सोचे-समझे इस्तेमाल कर रहे हैं। जरूरत है समझदारी से इस्तेमाल करने की। रात को सोने से एक घंटे पहले फोन बंद कर दो। दिन में सिर्फ तय समय पर चेक करो। जिन अकाउंट्स को फॉलो करने से नेगेटिविटी आती है, उन्हें अनफॉलो कर दो। रियल लाइफ में दोस्तों से मिलो, बाहर घूमो, किताब पढ़ो, कोई नया स्किल सीखो। सोशल मीडिया को अपनी जिंदगी का मालिक मत बनने दो, इसे सिर्फ एक टूल समझो।

अगर आपको लगातार उदासी, चिड़चिड़ापन, नींद न आना या जिंदगी से मन ऊबने जैसा कुछ महसूस हो रहा है तो एक बार सोचकर देखो कि कितना समय फोन में बीत रहा है। थोड़ा ब्रेक लो, डिटॉक्स करो। कुछ दिन बिना इंस्टाग्राम-फेसबुक के रह कर देखो, दिमाग हल्का लगेगा। और अगर फिर भी मन ठीक न हो तो किसी काउंसलर या साइकोलॉजिस्ट से बात कर लो। इसमें शर्मिंदा होने की कोई बात नहीं। मेंटल हेल्थ भी फिजिकल हेल्थ जितनी ही जरूरी है।

सोशल मीडिया ने हमें जोड़ा जरूर है, लेकिन अगर हम सावधान नहीं रहे तो ये हमें अकेला भी कर सकता है। असली खुशी लाइक्स और कमेंट्स में नहीं, अपने आसपास के लोगों में, अपने छोटे-छोटे पलों में छुपी है। फोन थोड़ा कम उठाओ, जिंदगी थोड़ा ज्यादा जियो। यही आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है।

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