मानसिक स्वास्थ्य का शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

मैं 2018 में पूरी तरह टूट चुका था। बाहर से सब ठीक लगता था – अच्छी नौकरी, शादीशुदा, दो बच्चे, नई कार – पर अंदर से मैं हर रात रोता था। ऑफिस से घर आता तो सीधे बेडरूम में बंद हो जाता, किसी से बात नहीं करना चाहता था। खाना मुश्किल से निगलता था, नींद गोलियों के बिना नहीं आती थी। वजन 14 किलो बढ़ गया था छह महीने में, बाल झड़ने लगे थे, बार-बार पेट खराब रहता था, और एक दिन अचानक सीने में तेज दर्द हुआ। हॉस्पिटल ले गए तो डॉक्टर ने कहा, “ये दिल का दौरा नहीं है, ये पैनिक अटैक है।” उस दिन मुझे पहली बार समझ आया कि दिमाग बीमार हो तो शरीर भी साथ छोड़ देता है।

मैंने इसके बाद जो सफर शुरू किया, उसने मुझे सिखाया कि मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक स्वास्थ्य दो अलग चीजें नहीं हैं – एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब दिमाग दुखी होता है, तो शरीर पर उसका हिसाब सीधा चढ़ता है। मेरे साथ जो हुआ, वो लाखों लोगों के साथ रोज होता है, बस हम इसे जोड़कर नहीं देखते।

सबसे पहले तनाव हार्मोन कोर्टिसोल ने मुझे मारना शुरू किया। जब मैं दिन-रात चिंता में डूबा रहता था, तो शरीर लगातार कोर्टिसोल पंप करता रहा। नतीजा? पेट पर चर्बी जमा होने लगी, चाहे मैं कितना भी कम खाता। कोर्टिसोल शुगर को ब्लड में छोड़ता है, इंसुलिन बढ़ता है, और सारी अतिरिक्त शुगर कमर पर चढ़ जाती है। आज भी जब मैं तनाव में होता हूँ, तो एक हफ्ते में दो-तीन किलो बढ़ जाता है, बिना कुछ ज्यादा खाए।

फिर नींद उड़ गई थी। रात को तीन-चार बजे तक आँखें खुली रहतीं, दिमाग में ऑफिस की बातें, पैसों की चिंता, बच्चे की पढ़ाई – सब घूमता रहता। नींद न आने से इम्यून सिस्टम कमजोर पड़ गया। पहले साल में मुझे दस बार सर्दी-जुकाम हुआ, दो बार निमोनिया तक हो गया। डॉक्टर ने कहा, “तुम्हारा शरीर लड़ ही नहीं पा रहा, क्योंकि रात को रिपेयर नहीं हो रहा।” आज जब मैं सात-आठ घंटे सोता हूँ, तो महीनों सर्दी तक नहीं लगती।

डिप्रेशन के दिनों में मैं खाना या तो बहुत ज्यादा खाता या बिल्कुल नहीं। जब खाता तो जंक – पिज्जा, बर्गर, कोल्ड ड्रिंक। जब नहीं खाता तो दो-दो दिन कुछ नहीं। नतीजा यह हुआ कि पेट में अल्सर हो गया, एसिडिटी इतनी कि रात को सो नहीं पाता था। आज भी जब मानसिक रूप से परेशान होता हूँ, तो सबसे पहले पेट खराब होता है। डॉक्टर ने बताया कि दिमाग और आंतें नर्वस सिस्टम से सीधे जुड़ी हैं – जो ऊपर चल रहा है, वही नीचे दिखता है।

बाल झड़ने की बात अलग थी। एक साल में माथा साफ हो गया। ट्राइकोलॉजिस्ट ने साफ कहा, “ये स्ट्रेस एलोपेशिया है। जब तक तनाव कम नहीं करोगे, बाल वापस नहीं आएँगे।” मैंने छह महीने थेरेपी ली, ध्यान करना शुरू किया, और धीरे-धीरे बाल लौट आए। आज भी जब ऑफिस में बहुत दबाव होता है, तो फिर बाल गिरने शुरू हो जाते हैं – मेरा शरीर मुझे अलार्म देता है।

सबसे डरावनी चीज थी ब्लड प्रेशर। 32 साल की उम्र में मेरा बीपी 150/100 रहने लगा। दवा शुरू हो गई। मनोचिकित्सक ने कहा, “तुम्हारा दिमाग लगातार फाइट-ऑर-फ्लाइट मोड में है, इसलिए धड़कन तेज, नसें सिकुड़ रही हैं।” थेरेपी और दवाइयों के साथ-साथ मैंने रोज सुबह 10 मिनट गहरी साँस लेना शुरू किया। छह महीने बाद दवा आधी हो गई, एक साल बाद पूरी बंद। आज बीपी 120/80 रहता है, बशर्ते मैं अपने दिमाग को शांत रखूँ।

एक और बात जो मैंने खुद पर देखी – जब मैं उदास रहता था, तो व्यायाम करने की इच्छा ही नहीं होती थी। शरीर भारी लगता था, जिम जाना बोझ। नतीजा यह कि मांसपेशियाँ कमजोर पड़ती गईं, पीठ दर्द शुरू हो गया, घुटनों में आवाज आने लगी। जब से मानसिक स्थिति ठीक हुई, रोज सुबह टहलने का मन खुद-ब-खुद करने लगा। आज 55 साल की उम्र में मैं 10 किलो वजन उठाकर स्क्वॉट्स कर लेता हूँ, क्योंकि दिमाग खुश है तो शरीर साथ देता है।

महिलाओं में तो ये रिश्ता और गहरा होता है। मेरी पत्नी जब डिप्रेशन में थी, तो उसका पीसीओएस बहुत बढ़ गया। पीरियड्स महीनों गायब, वजन बढ़ता गया, चेहरा पर मुहाँसे। जैसे-जैसे उसने थेरेपी शुरू की और खुश रहने की कोशिश की, पीसीओएस कंट्रोल में आ गया, बिना कोई हार्मोन की दवा लिए। आज वो कहती है, “मैंने शरीर का इलाज दिमाग से किया।”

बच्चों पर भी असर पड़ता है। मेरे बेटे को जब एंट्रेंस एग्जाम का तनाव हुआ, तो उसका अस्थमा फिर से शुरू हो गया। तीन साल से इनहेलर नहीं लिया था, पर उस साल फिर शुरू। डॉक्टर ने साफ कहा, “अस्थमा का ट्रिगर स्ट्रेस है।” जैसे ही एग्जाम खत्म हुआ और वो रिलैक्स हुआ, अस्थमा गायब।

अब मैं रोज ये छोटी-छोटी चीजें करता हूँ जो दिमाग को ठीक रखती हैं और शरीर अपने आप ठीक रहता है। सुबह 20 मिनट टहलना, 10 मिनट ध्यान, दिन में तीन बार गहरी साँसें, शाम को बच्चों के साथ खेलना, रात को दस बजे फोन बंद। कोई किताब पढ़ता हूँ, पुराने दोस्तों से बात करता हूँ। ये सब मुफ्त की दवाइयाँ हैं, पर इनका असर एंटीडिप्रेसेंट से ज्यादा है।

लोग कहते हैं कि मानसिक बीमारी दिखती नहीं, इसलिए लोग गंभीर नहीं लेते। मैं कहता हूँ – दिखती जरूर है, बस हम उसे शरीर की बीमारी समझते हैं। मोटापा, डायबिटीज, हार्ट अटैक, बाल झड़ना, पेट की गड़बड़ी – इनमें से आधे के पीछे दिमाग का दुख होता है। अगर हम दिमाग को ठीक कर लें, तो शरीर आधा अपने आप ठीक हो जाता है।

आज अगर कोई मुझसे कहे कि उसे थायरॉइड है, बीपी है, शुगर है, तो मैं सबसे पहले पूछता हूँ – “तुम खुश हो?” ज्यादातर लोग चुप हो जाते हैं। क्योंकि सच्चाई यही है। शरीर को दवा दे सकते हो, पर दिमाग को प्यार, सुकून और बात करने का मौका नहीं दोगे, तो कोई दवा पूरी तरह काम नहीं करेगी।

मैंने अपनी जिंदगी से सीखा है – अगर दिमाग रो रहा है, तो शरीर भी रोता है। अगर दिमाग हँस रहा है, तो शरीर नाचता है। इसलिए अब मैं सबसे पहले अपने दिमाग की देखभाल करता हूँ। बाकी सब अपने आप ठीक हो जाता है। तुम भी कोशिश करके देखो। किसी से दिल की बात कह दो, 10 मिनट शांति से बैठो, किसी पेड़ को गले लगाओ, किसी को थैंक यू बोल दो। छोटी-छोटी खुशियाँ इकट्ठा करो। तुम्हारा शरीर तुम्हें शुक्रिया कहेगा। मैंने कर लिया, तुम भी कर सकते हो।

Leave a Comment